चार निर्दलीय विधायकों के उमर अब्दुल्ला को समर्थन देने के ऐलान, कांग्रेस की हालत हुई पतली

श्रीनगर

जम्मू-कश्मीर विधानसभा के नतीजे भी अब कांग्रेस के लिए हरियाणा जैसे ही लग रहे हैं. हरियाणा में तो कांग्रेस चुनाव ही हार गई है, जम्मू-कश्मीर में तो आधा दर्जन सीटें जीतकर भी कांग्रेस ने हार जैसी स्थिति कर डाली है.

ये सब हुआ है विधानसभा चुनाव जीत कर आये चार निर्दलीय विधायकों के उमर अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस को समर्थन देने के ऐलान के बाद. निर्दलीय विधायकों को अपने साथ लेने का मौका तो कांग्रेस के पास भी रहा होगा – कांग्रेस अगर समय रहते अलर्ट हो जाती तो क्या निर्दलीय विधायक उसके पाले में नहीं आ सकते थे?

कांग्रेस की तरफ से ऐसी चूक कोई पहली बार हुई हो, ऐसा बिलकुल नहीं है. देर से लिया गया फैसला और लक्ष्य को साधने के प्रति लापरवाही हमेशा ही कांग्रेस पर भारी पड़ी है – और जम्मू-कश्मीर का मामला बस ताजातरीन है.

सवाल है कि अब क्या कांग्रेस उमर अब्दुल्ला सरकार में अपने विधायकों के लिए बेहतर मोलभाव कर सकेगी? लेकिन, ऐसी संभावना तो फिलहाल बिलकुल भी नहीं लगती.

सवाल ये भी है कि क्या अपने विधायकों को सरकार में बेहतर पोजीशन न दिला पाने की कीमत तो नहीं चुकानी पड़ेगी?

और कहीं ऐसा न हो कालांतर में कांग्रेस के विधायक पार्टी को पीठ दिखाकर नेशनल कांफ्रेंस में ही न चले जायें? एक संभावना ये भी तो बनती ही है.

वैसे, जिन निर्दलीयों ने नेशनल कॉन्‍फ्रेंस को समर्थन दिया है, उनका NC से ही नाता रहा है. दो निर्दलीय तो ऐसे हैं, जो उमर की पार्टी में ही थे, लेकिन सीटों के बंटवारे में जब उनकी विधानसभा कांग्रेस के कोटे में चली गई तो वे बागी होकर निर्दलीय खड़े हो गए. इंदरवाल सीट से जीते प्‍यारेलाल शर्मा और सूरनकोट से से चुनकर आए चौधरी अकरम को नेशनल कॉन्‍फ्रेंस का ही विधायक माना जाना चाहिए. हां, निर्दलीय होने की वजह से उनके पास मंत्रालय पाने का भी दावा बन गया है.

जम्‍मू की खातिर उमर के लिए कांग्रेस के 6 विधायकों से ज्‍यादा काम के हैं 4 निर्दलीय

जम्‍मू-कश्‍मीर के चुनाव में नेशनल कॉन्‍फ्रेंस ने अपनी ज्‍यादातर सीटें घाटी में ही जीतीं. जबकि कांग्रेस तो जम्‍मू से एक भी सीट नहीं जीत पाई. यानी लग रहा था कि सूबे का सत्‍ता पक्ष कश्‍मीर घाटी के विधायकों और मंत्रियों से पटा होगा. जबकि जम्‍मू में एकतरफा जीतकर आई बीजेपी विपक्ष में होगी. लेकिन, जम्‍मू क्षेत्र के ही चारों निर्दलीय विधायकों ने नेशनल कॉन्‍फ्रेंस को समर्थन देकर आगे आने वाली सरकार में घाटी और जम्‍मू के बीच संतुलन स्‍थापित करने की उम्‍मीद जगा दी है.

उमर अब इन निर्दलीय विधायकों के भरोसे ये कह सकते हैं कि उनके पक्ष में जम्‍मू का प्रतिनिधित्‍व करने वाले सदस्‍य भी शामिल हैं. हालांकि, नेशनल कॉन्‍फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन में तय यही हुआ था कि कांग्रेस जम्‍मू का मोर्चा संभालेगी और नेशनल कॉन्‍फ्रेंस घाटी की चुनावी चुनौती से निपटेगी. नेशनल कॉन्‍फ्रेंस ने तो अपना कमिटमेंट पूरा किया, बल्कि जम्‍मू में भी कुछ सीटें जीतीं. जबकि कांग्रेस का जम्‍मू में सूपड़ा साफ हो गया. उसे जो 6 सीटें मिली हैं, वह भी घाटी में ही मिलीं.

कोई भी फैसला लेने में हीलाहवाली बहुत भारी पड़ती है

जम्मू-कश्मीर के नतीजे हरियाणा विधानसभा चुनाव में बुरी तरह झुलस चुकी कांग्रेस के लिए मरहम का काम कर रहे थे. क्योंकि नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन को बहुमत हासिल हो गया था.

जम्‍मू-कश्‍मीर में 42 सीटें हासिल करने वाले उमर अब्‍दुल्‍ला ने 4 निर्दलीयों का समर्थन हासिल करके सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत जुटा लिया है. अब कांग्रेस का समर्थन मिलना बस औपचारिकता भर ही है. सरकार बनाने की उठापटक में कांग्रेस की आरामतलबी उसे भारी पड़ गई. जाहिर है, सरकार में जो रुतबा कांग्रेस को मिलता, उस पर 4 निर्दलीयों ने पहले दावा कर दिया है.

इस स्थिति में अब फर्क तभी आएगा जब उप राज्यपाल के 5 विधायकों के मनोनयन से बहुमत का आंकड़ा 48 हो जाएगा – फिर भी निर्दलीयों के आगे कांग्रेस विधायकों की हैसियत कम ही रह जाएगी.

राजनीतिक समीकरण बदल जाने का सीधा प्रभाव ये होगा कि कांग्रेस के लिए अपने विधायकों को सरकार में सही पोजीशन दिला पाना मुश्किल हो जाएगा – और ऐसे में विधायकों के टूट जाने का खतरा भी मंडराने लगा है.   

कांग्रेस बार बार एक जैसी गलती क्यों करती है

1. हरियाणा में कांग्रेस की ये लगातार तीसरी हार है. 2014 में तो सत्ता परिवर्तन हुआ था, लेकिन 2019 में तो कांग्रेस के पास सत्ता में वापसी का अच्छा मौका था.

पिछली बार न तो बीजेपी को बहुमत मिला था, न ही कांग्रेस को – और दुष्यंत चौटाला किंगमेकर बन कर उभरे थे. बीजेपी ने दुष्यंत चौटाला की जेजेपी को साध लिया, और कांग्रेस चूक गई.

2. गोवा और मणिपुर में 2017 के चुनाव में तो कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी, लेकिन दोनो राज्यों में पिछड़ जाने के बावजूद अगर बीजेपी सत्ता पर काबिज होने में सफल रही तो उसके लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार थी.

तब कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह गोवा के प्रभारी हुआ करते थे, और कांग्रेस की सरकार न बनवा पाने का खामियाजा भी उनको भुगतना पड़ा था. उसके बाद तो दिग्विजय सिंह को दरकिनार ही कर दिया गया था, और नर्मदा परिक्रमा की बदौलत साल भर बाद ही मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में उनकी वापसी हो सकी थी.

गोवा की 40 में कांग्रेस ने 17 विधानसभा सीटें जीती थी, लेकिन 13 सीटों वाली बीजेपी ने निर्दलीयों को साथ लेकर सरकार बना लिया था – और वैसे ही मणिपुर में भी 28 सीटों वाली कांग्रेस को पछाड़ कर 21 विधायकों के साथ बीजेपी ने सरकार बना लिया था.

3. कांग्रेस नेतृत्व ने 2018 में नॉर्थ ईस्ट में वैसा ही रवैया दिखाया. 60 सीटों वाली मेघालय विधानसभा में बहुमत के लिए 31 विधायक चाहिये थे. 21 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी, जिसे महज 10 विधायकों की जरूरत थी. लेकिन, 2 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने ऐसा ताना बाना बुना कि गठबंधन की सरकार बन गई, और कांग्रेस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही.

निर्दलीय विधायकों के फैसले में बीजेपी का कितना रोल?

सवाल तो ये भी उठ रहा है कि जम्मू-कश्मीर में निर्दलीय विधायकों के उमर अब्दुल्ला को समर्थन देने में बीजेपी की भी कोई भूमिका हो सकती है क्या?

ऐसे कयास लगाये जाने के पीछे एक बड़ी मजबूत दलील भी दी जा रही है, क्योंकि फायदा तो बीजेपी को ही होता नजर आ रहा है. बीजेपी को तो हर उस चीज से फायदा होता है, जिसमें कांग्रेस का नुकसान होता हो.

अगर कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेस गठबंधन सरकार में मजबूत होती तो बीजेपी का ही सिरदर्द बढ़ता. अब तो कांग्रेस विधायकों से ज्यादा निर्दलीय विधायकों का सरकार में बोलबाला होगा.
उमर अब्दुल्ला के लिए भी निर्दलीयों से सौदेबाजी मुश्किल होगी. लेकिन, उनका नंबर ज्यादा होने से कांग्रेस पिछड़ जाएगी – और बीजेपी हर स्थिति में फायदे में रहेगी.

 

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